भारत के इतिहास में स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अमर वीरों में महाराणा प्रताप का नाम सर्वोपरि है। मेवाड़ के इस ‘कीकटस’ ने मुगल साम्राज्य की विशाल शक्ति के सामने झुकने से इनकार कर दिया और जीवन भर अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। उनका जीवन त्याग, संघर्ष, साहस और दृढ़ प्रतिज्ञा की एक ऐसी गाथा है जो सदियों तक भारतीयों को प्रेरित करती रहेगी। आइए जानते हैं महाराणा प्रताप के जीवन के प्रत्येक पहलू को विस्तार से।

महाराणा प्रताप का प्रारंभिक जीवन और परिवार
जन्म (Birth)
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत 1597) को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। पिता (Father) उदयसिंह द्वितीय (मेवाड़ के महाराणा), माता (Mother) महारानी जयवंता बाई (जैतमल सोनगरा की पुत्री)। बचपन (Childhood) बचपन का नाम ‘कीका’ था। उनका लालन-पालन कुंभलगढ़ के दुर्ग में हुआ। बचपन से ही उनमें शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों की शिक्षा, घुड़सवारी और युद्ध कौशल में निपुणता दिखाई दी। उनका चरित्र सादगी, साहस और दृढ़ता से भरपूर था।
वंश (Dynasty) वे मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक थे, जिसकी गौरवशाली परंपरा सदियों पुरानी थी।
राज्याभिषेक और प्रारंभिक चुनौतियाँ (Coronation & Initial Challenges)
राजगद्दी (Ascension to Throne) महाराणा उदयसिंह के निधन के बाद, 1 मार्च, 1572 को गोगुन्दा में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ।
पहली प्रतिज्ञा (First Vow) राजतिलक के समय ही उन्होंने घोषणा की कि वे मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देंगे और कभी मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाएंगे। यह उनकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक था।
आंतरिक विरोध (Internal Opposition) भले ही प्रजा उनके साथ थी, लेकिन कुछ सामंत और उनके भाई शक्ति सिंह ने प्रारंभ में उनका विरोध किया, जो बाद में मुगलों से जा मिले।
मुगलों से संघर्ष की पृष्ठभूमि (Background of Conflict with Mughals)
“अकबर की महत्वाकांक्षा (Akbar’s Ambition) मुगल सम्राट अकबर सम्पूर्ण भारत को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहता था। उसने अन्य राजपूत राजाओं से वैवाहिक संबंध बनाकर या युद्ध करके उन्हें अधीन कर लिया था।
“मेवाड़ की राह में अड़चन (Mewar: The Thorn) मेवाड़, अपनी रणनीतिक स्थिति और स्वतंत्रता के प्रबल आग्रह के कारण, अकबर के साम्राज्यवादी सपने में सबसे बड़ी बाधा था।
“दूतावास और दबाव (Diplomacy & Pressure) अकबर ने महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने के लिए कई शान्ति प्रस्ताव भेजे (जयमल मेड़तिया, राजा मानसिंह, टोडरमल आदि के माध्यम से)। इनमें सम्मानजनक स्थान और जागीर का लालच भी शामिल था।
“अकबर का प्रस्ताव ठुकराया (Rejection of Akbar’s Offer) महाराणा प्रताप ने स्पष्ट कहा कि वे अपनी स्वतंत्रता और पैतृक भूमि किसी भी कीमत पर नहीं बेचेंगे। उनका प्रसिद्ध कथन था जो मेवाड़ की धरती का एक टुकड़ा भी अकबर को देगा, वह धर्म और ईश्वर का द्रोही होगा। उन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया।
हल्दीघाटी का महासंग्राम (1576) – The Epic Battle of Haldighati (1576)
युद्ध की विवशता (Inevitable War) महाराणा के दृढ़ निश्चय ने युद्ध को अनिवार्य बना दिया। तिथि और स्थान (Date & Location) 18 जून, 1576 को राजस्थान के हल्दीघाटी नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ।
सेनापति (Commanders) मानसिंह (प्रमुख सेनापति) महाराणा प्रताप स्वयं। उनके वफादार सरदार मानसिंह, रामदास मेड़तिया, पूंजा भील आदि। सेना छोटी थी लेकिन जोश और देशभक्ति से ओतप्रोत।
मुगल सेनापति, आसफ खाँ। सेना संख्या में विशाल और सुसज्जित थी। मुगलों के पास संख्याबल और तोपखाने का लाभ था।
महाराणा ने ‘घमासान युद्ध’ (मल्ल युद्ध) और पर्वतीय क्षेत्र की अपनी जानकारी का लाभ उठाने की कोशिश की। महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक इस युद्ध का अमर नायक बना। उसने महाराणा को बचाते हुए, एक विशाल नाले (जिसे अब ‘चेतक की पोल’ कहा जाता है) को लांघा, जबकि वह स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गया था। युद्धक्षेत्र से सुरक्षित दूर ले जाने के बाद चेतक ने वीरगति प्राप्त की। उसकी वफादारी और बलिदान आज भी गौरवगाथा है।
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युद्ध का परिणाम (Outcome)
यह युद्ध अत्यंत भीषण और निर्णायक रूप से किसी के पक्ष में नहीं हुआ। मुगल सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन वे उदयपुर पर कब्जा करने में सफल रहे। महाराणा प्रताप युद्धक्षेत्र से सुरक्षित निकल गए और संघर्ष जारी रखा। इतिहासकार इसे मुगलों की ‘पायर्रहिक जीत’ और महाराणा की ‘नैतिक विजय’ मानते हैं।
जंगलों में संघर्ष और पुनर्जागरण (Struggle in Jungles & Renaissance)
अरावली की पहाड़ियों में जीवन (Life in Aravalli Hills)
हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने अरावली की दुर्गम पहाड़ियों और जंगलों में शरण ली। चावंड को उन्होंने अपनी नई राजधानी बनाया। यह काल उनके और उनके परिवार के लिए अत्यंत कष्टदायक था। भोजन के लिए जंगली फल-कंद, घास की रोटियाँ (कभी-कभी); पेड़ों के नीचे विश्राम। उनकी पत्नी महारानी अजबदे पुनवार ने भी इस कठिनाई में साथ दिया। कहा जाता है एक बार उनके बेटे अमरसिंह ने भूख से व्याकुल होकर बिना बुलाए भोजन कर लिया, तब महाराणा ने उसे सिखाया कि स्वतंत्रता के लिए यह सब कष्ट सहना पड़ता है।
भामाशाह का योगदान (Bhamashah’s Contribution)
इस संकटकाल में उनके वफादार सेवक भामाशाह ने अपना सारा जीवन भर का संचित धन (लगभग 25 लाख रुपये और 20,000 सोने के अशर्फियों सहित) महाराणा को भेंट कर दिया। यह धन मेवाड़ की सेना को पुनर्गठित करने और संघर्ष को नई शक्ति देने में महत्वपूर्ण साबित हुआ।
गुरिल्ला युद्ध (Guerrilla Warfare) महाराणा ने छापामार युद्ध (गुरिल्ला युद्ध) की नीति अपनाई। वे मुगल सेना पर अचानक हमला करते, उनकी रसद आपूर्ति काटते और फिर पहाड़ियों में गायब हो जाते। इस रणनीति ने मुगलों को बहुत परेशान किया।
मेवाड़ की पुनर्प्राप्ति और अंतिम वर्ष (Reconquest of Mewar & Final Years)
किलों पर पुनः अधिकार (Recapture of Forts) भामाशाह के धन और छापामार युद्ध से प्राप्त सफलता से उत्साहित होकर महाराणा ने मुगलों से मेवाड़ के कई महत्वपूर्ण क्षेत्र और किले वापस छीन लिए। उदयपुर, गोगुन्दा, कुंभलगढ़ जैसे प्रमुख स्थानों पर उन्होंने पुनः अधिकार स्थापित किया।
दिवेर का युद्ध (1582) – Battle of Dewair (1582) हल्दीघाटी के बाद यह एक महत्वपूर्ण युद्ध था जहां महाराणा प्रताप ने मुगल सेनापति सुल्तान खाँ को पराजित किया और कई किले मुक्त कराए। इसे उनकी महत्वपूर्ण सैनिक सफलता माना जाता है।
मेवाड़ की स्वतंत्रता (Independence of Mewar) अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक महाराणा प्रताप निरंतर संघर्षरत रहे। उनके प्रयासों से मेवाड़ का अधिकांश भाग मुगलों के कब्जे से मुक्त हो गया और उन्होंने अपनी स्वतंत्रता बहाल कर ली। हालाँकि चित्तौड़ पर पुनः अधिकार नहीं हो सका।
मृत्यु (Death) दीर्घकालीन संघर्ष और चोटों के कारण 19 जनवरी, 1597 को चावंड में महज 57 वर्ष की आयु में इस महान वीर का निधन हो गया।
विरासत और महत्व (Legacy & Significance)
स्वाभिमान के प्रतीक (Symbol of Self-Respect) महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास में स्वाभिमान, स्वतंत्रता प्रेम और अदम्य साहस के सबसे बड़े प्रतीक बन गए। उनका जीवन त्याग और संघर्ष की अद्वितीय मिसाल है।
राष्ट्रीय प्रेरणा (National Inspiration) उनकी गाथा ने भारतीयों को विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए सदैव प्रेरित किया है। उनका नाम देशभक्ति का पर्याय बन गया है। राजस्थानी लोकगीत, कविताएँ, चित्रकला और साहित्य में महाराणा प्रताप और चेतक की वीरता का विस्तृत वर्णन मिलता है।उन्होंने मुगल साम्राज्य की विस्तारवादी नीति को सफलतापूर्वक चुनौती दी और सिद्ध किया कि दृढ़ इच्छाशक्ति से बड़ी से भी बड़ी शक्ति का मुकाबला किया जा सकता है।